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उप॑हूताऽइ॒ह गाव॒ऽउप॑हूताऽअजा॒वयः॑। अथो॒ऽअन्न॑स्य की॒लाल॒ऽउप॑हूतो गृ॒हेषु॑ नः। क्षेमा॑य वः॒ शान्त्यै॒ प्रप॑द्ये शि॒वꣳ श॒ग्मꣳ शं॒योः शं॒योः ॥४३॥

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पद पाठ

उप॑हूता॒ इत्युप॑ऽहूताः। इ॒ह। गावः॑। उप॑हूता॒ इत्युप॑ऽहूताः। अ॒जा॒वयः॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। अन्न॑स्य। की॒लालः॑। उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। गृ॒हेषु॑। नः॒। क्षेमा॑य। वः॒। शान्त्यै॑। प्र॒। प॒द्ये॒। शि॒वम्। श॒ग्मम्। शं॒योरिति॑ श॒म्ऽयोः॑। शं॒योरिति॑ श॒म्ऽयोः॑ ॥४३॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:43


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस गृहस्थाश्रम को कैसे सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) इस गृहस्थाश्रम वा संसार में (वः) तुम लोगों के (शान्त्यै) सुख (नः) हम लोगों की (क्षेमाय) रक्षा के (गृहेषु) निवास करने योग्य स्थानों में जो (गावः) दूध देनेवाली गौ आदि पशु (उपहूताः) समीप प्राप्त किये वा (अजावयः) भेड़-बकरी आदि पशु (उपहूताः) समीप प्राप्त हुए (अथो) इसके अनन्तर (अन्नस्य) प्राण धारण करनेवाले (कीलालः) अन्न आदि पदार्थों का समूह (उपहूताः) अच्छे प्रकार प्राप्त हुआ हो, इन सब की रक्षा करता हुआ जो मैं गृहस्थ हूँ सो (शंयोः) सब सुखों के साधनों से (शिवम्) कल्याण वा (शग्मम्) उत्तम सुखों को (प्रपद्ये) प्राप्त होऊँ ॥४३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थों को योग्य है कि ईश्वर की उपासना वा उसकी आज्ञा के पालन से गौ, हाथी, घोड़े आदि पशु तथा खाने-पीने योग्य स्वादु भक्ष्य पदार्थों का संग्रह कर अपनी वा औरों की रक्षा करके विज्ञान, धर्म, विद्या और पुरुषार्थ से इस लोक वा परलोक के सुखों को सिद्ध करें, किसी भी पुरुष को आलस्य में नहीं रहना चाहिये, किन्तु सब मनुष्य पुरुषार्थवाले होकर धर्म से चक्रवर्ती राज्य आदि धनों को संग्रह कर उनकी अच्छे प्रकार रक्षा करके उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों, इससे अन्यथा मनुष्यों को न वर्तना चाहिये, क्योंकि अन्यथा वर्तनेवालों को सुख कभी नहीं होता ॥४३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशः संपादनीय इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उपहूताः) सामीप्यं प्रापिताः (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे संसारे वा (गावः) दुग्धप्रदा धेनवः (उपहूताः) सामीप्यं प्रापिताः (अजावयः) अजाश्चावयश्च ते (अथो) आनन्तर्ये (अन्नस्य) प्राणधारणस्य निरन्तरसुखस्य च हेतुः। कृवृ० (उणा०३.१०) इत्यनधातोर्नः प्रत्ययः। धापॄवस्यज्य० (उणा०३.६) इत्यतधातोर्नः प्रत्ययः। (कीलालः) उत्तमान्नादिपदार्थसमूहः। कीलालं इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (उपहूतः) सम्यक् प्रापितः (गृहेषु) निवसनीयेषु प्रासादेषु (नः) अस्माकम् (क्षेमाय) रक्षणाय (वः) युष्माकम् (शान्त्यै) सुखाय (प्रपद्ये) प्राप्नोमि (शिवम्) कल्याणम् (शग्मम्) सुखम् (शंयोः) कल्याणवतः साधनात् कर्मणः सुखवतो वा (शंयोः) सुखात्। अत्रोभयत्र कंशंभ्यां बभयुस्तितुतयसः (अष्टा०५.२.१३८) इति शमो युस् प्रत्ययः। शिवं शग्मं चेति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) ॥४३॥

पदार्थान्वयभाषाः - इहास्मिन् संसारे वो युष्माकं शान्त्यै नोऽस्माकं क्षेमाय गृहेषु गाव उपहूता अजावय उपहूता अथोऽन्नस्य कीलाल उपहूतोऽस्त्वेवं कुर्वन्नहं गृहस्थः शंयोः शिवं शग्मं च प्रपद्ये ॥४३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थैरीश्वरोपासनाज्ञापालनाभ्यां गोहस्त्यश्वादीन् पशून् भक्ष्यभोज्यलेह्यचूष्यान् पदार्थांश्चोपसञ्चित्य स्वेषामन्येषां च रक्षणं कृत्वा विज्ञानधर्मपुरुषार्थैरैहिकपारमार्थिके सुखे संसेधनीये, नैव केनचिदालस्ये स्थातव्यम्। किन्तु ये मनुष्याः पुरुषार्थवन्तो भूत्वा धर्मेण चक्रवर्त्तिराज्यादीनुपार्ज्य संरक्ष्योन्नीय सुखानि प्राप्नुवन्ति, ते श्रेष्ठा गण्यन्ते नेतरे ॥४३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थांनी ईश्वराची उपासना करावी व त्याच्या आज्ञा पाळाव्यात. गाई, घोडे इत्यादी पशू आणि खाद्यपदार्थांचा संग्रह करून आपले व इतरांचे रक्षण करावे. तसेच विज्ञान, धर्म, विद्या व पुरुषार्थ याद्वारे ऐहिक व पारलौकिक सुख प्राप्त करावे. कोणत्याही माणसाने आळशी राहता कामा नये. सर्व माणसांनी पुरुषार्थी बनून धर्माने चक्रवर्ती राज्य स्थापन करून धनाचा संग्रह करावा व त्यांचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून सुखी व्हावे. माणसांनी या विपरीत वागू नये. याविरुद्ध वागणाऱ्याला कधीच सुख मिळत नाही.